83, धोनी से लेकर तांबे : बॉलीवुड की हमारी मनपसंद क्रिकेट फ़िल्में

ईएसपीएनक्रिकइंफ़ो हिंदी स्टाफ़
ईएसपीएनक्रिकइंफ़ो डेस्क के सदस्यों ने अपने मनपसंद क्रिकेट फ़िल्म पर कुछ पंक्तियां लिखीं

हाल ही में 'कौन प्रवीण तांबे?' नामक फ़िल्म में पूर्व मुंबई, राजस्थान रॉयल्स और गुजरात लायंस के लेग स्पिनर प्रवीण तांबे की आत्मकथा को बड़े परदे पर दिखाया गया है। इस अवसर पर हमने ईएसपीएनक्रिकइंफ़ो पर अपने डेस्क के सदस्यों से पूछा कि अगर उन्हें अपनी मनपसंद क्रिकेट फ़िल्म पर कुछ लिखने को कहा जाए तो कैसा रहेगा?

तिरासी (83) - भारतीय क्रिकेट का सबसे यादगार पल - अफ़्ज़ल जिवानी

1983 का विश्व कप और लॉर्ड्स में ट्रॉफ़ी उठाते कपिल देव। यह एक ऐसी तस्वीर है, जो भारतीय क्रिकेट के हर समर्थक को जीवनभर याद रहेगी। और हो भी क्यों ना? एक ऐसी टीम जब सभी की उम्मीदों के विपरीत, दमदार प्रदर्शन करते हुए अपना पहला विश्व कप जीतती है, तो सभी की आंखें खुली की खुली रह जाती है।

कपिल के नेतृत्व में वह सुपरस्टार खिलाड़ियों से भरी टीम नहीं थी। हां, सुनील गावस्कर उस टीम का हिस्सा थे लेकिन उनके अलावा कोई ऐसा नाम नहीं था, जिससे अन्य टीमों के खिलाड़ी डरे। ऐसी इस टीम ने दो बार की गत चैंपियन वेस्टइंडीज़ को हराकर अपने विश्व कप अभियान की शुरुआत और उसका अंत किया था। इस सफ़र में इन खिलाड़ियों ने क्या कुछ नहीं सहा। दिलीप वेंगसरकर की चोट, लोगों की आलोचना और ताने भी। फिर भी जिस दृढ़ता के साथ कपिल के डेविल (शैतान) मैदान पर उतरते थे, उससे अच्छी-अच्छी टीमों के पसीने छूट जाते थे।

1983 के विश्व कप के दौरान मैं इस धरती पर नहीं था और 83 फ़िल्म के ज़रिए ही मैंने उस टीम के सफ़र, टनब्रिज वेल्स पर कपिल की रिकॉर्ड तोड़ पारी और इस टीम की सफलता को जिया है। यही कारण है कि 83 मेरी सबसे पसंदीदा फ़िल्म है।

लॉर्ड्स के ऐतिहासिक बालकनी में फ़िल्माया गया फ़िल्म का एक दृश्य © Getty Images

इक़बाल - शिद्दत से इक़बाल ने पाया अपना जहान - निखिल शर्मा

इक़बाल फ‍िल्‍म का एक सीन है। श्रेयस तलपड़े कप्तान से गेंदबाज़ी कराने की मांग करते हैं। चार लगातार गेंदों पर बल्लेबाज़ कवर की दिशा में कवर ड्राइव लगाकर मुश्किल खड़ी करता है। तब वह कप्तान की ओर अंगुली घुमाकर चक्रव्यूह का इशारा करते हैं। यह एक स्लो गेंद थी और दोबारा से कवर ड्राइव खेलने के चक्कर में वह पहले ही बल्ला चला गए और आउट हो गए। यह 2005 की मूवी है, वह साल जब पुरुष क्रिकेट में पहला टी20 अंतर्राष्ट्रीय मुक़ाबला खेला गया था। इक़बाल बोल नहीं सकता था लेकिन यह उसकी गेंदबाज़ी की सोच को दर्शाता है।

एक बहन का समर्पण और एक कोच की शिद्दत इक़बाल के नीली जर्सी के सपने को आख़िरकार एक दिन साकार कर देती है, जहां स्टेडियम की गूंज, अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट की चकाचौंध उसको उसके सपने के सच होने का इशारा करती है। यह कहानी बताती है कि सपने सच होते हैं, सपने पूरे होते हैं, लेकिन सपनों में एक उड़ान होनी चाहिए।

तांबे - सबका सपना इंडिया नहीं रणजी खेलना भी होता है - राजन राज

किसी एक फ़िल्म के द्वारा किसी भी व्यक्ति या खिलाड़ी के 40-43 साल के सफ़र को दिखाना संभव नहीं है। हालांकि कौन प्रवीण तांबे? फ़िल्म के निर्माताओं ने उनके संघर्ष के लंबे सफ़र की झलकी को बख़ूबी फ़िल्माने का काम किया है। साथ ही श्रेयस तलपड़े ने भी कमाल की एक्टिंग करते हुए, इस सिनेमा और इसके संदेश को और भी ज़्यादा मज़बूत करने का काम किया है।

तांबे मूवी की शूटिंग के दौरान श्रेयस तलपड़े और प्रवीण तांबे? © Kaun Pravin Tambe?

चैन कुली की मैन कुली : प्रतिभा और आत्मविश्वास के संघर्ष की दास्तां - नवनीत झा

करन 13 वर्षीय अनाथ बच्चा है। उसके पास एक जादुई बैट है, जिसके सहारे वह भारतीय टीम में खेल रहा है। अपने जादुई बैट की वजह से करन जल्द ही देश भर में लोकप्रियता हासिल कर चुका है। लेकिन पाकिस्तान के ख़िलाफ़ निर्णायक वनडे से पहले, अनाथालय में करन के प्रति द्वेष भाव रखने वाला राघव जादुई बैट को तोड़ डालता है। करन इस असमंजस में है कि वह अपने जादुई बैट के बिना वैसी ही बल्लेबाज़ी कर पाएगा या नहीं? क्या अब सारी दुनिया के सामने उसकी पोल खुल जाएगी? भारतीय टीम के लगातार विकेट गिर रहे हैं। लेकिन करन मैदान में बल्लेबाज़ी करने के लिए नहीं उतरना चाहता है। टीम के 9 विकेट गिर जाने के बाद उसे मैदान में मजबूरन उतरना पड़ता है।

आख़िरी गेंद में भारतीय टीम को लिए जीत के लिए चार रन चाहिए। सामने विपक्षी टीम का तेज़ गेंदबाज़ है। क्या करन अपने जादुई बैट के बिना आख़िरी गेंद पर चौका जड़ पाएगा? जादू करन में था या उसके बैट में? प्रतिभा और आत्मविश्वास के इसी संघर्ष की दास्तान है 'चैन कुली की मैन कुली'।

एम एस धोनी, 'द अनटोल्ड स्टोरी' - माही के आलोचकों को भी बना सकती है प्रशंसक - सैयद हुसैन

मूवी के प्रमोशन के दौरान महेंद्र सिंह धोनी और दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत (फ़ाइल फ़ोटो) © AFP

धोनी की करिश्माई छवि किसी से छिपी नहीं है और इसी को भुनाने के मक़सद से निर्माता-निर्देशक नीरज पांडे ने धोनी की ज़िंदगी पर ये फ़िल्म बनाई। हालांकि, बायोपिक में जिन बारीकियों का ध्यान रखना चाहिए, वहां नीरज पांडे से थोड़ी चूक हुई है या फिर धोनी ने उनके साथ बैठकर ये तय किया होगा कि फ़िल्म किस चीज़ को कैसे और कितना दिखाना चाहिए। लेकिन फिर भी जिस अंदाज़ में धोनी की ज़िंदगी के अनछुए और अनसुने पहलुओं को नीरज पांडे ने दिखाने की कोशिश की है, वह लाजवाब है।

इस फ़िल्म में कई ऐसी बातों के बारे में क्रिकेट प्रेमियों को जानकारी मिलती है, जो उन्हें आमतौर पर नही पता था- जैसे कि धोनी को क्रिकेट खेलना पसंद नहीं था, वह एक फुटबॉल गोलकीपर थे, स्कूल में विकेटकीपर की जगह ख़ाली रहती है इसलिए धोनी को इसके लिए चुना जाता है। धोनी का सबसे मशहूर 'हेलिकॉप्टर शॉट' उन्होंने अपने दोस्त संतोष से सीखा, जिसे उनका दोस्त 'स्लैप शॉट' कहता था।

धोनी के किरदार को दिवंगत सुशांत सिंह राजपूत ने बेहद करीने से निभाया है। उनके शॉट्स देखकर ऐसा लगता है जैसे कोई क्रिकेटर ही खेल रहा हो। वहीं उनके पिता पान सिंह धोनी का किरदार अनुपम खेर ने बेहतरीन अंदाज़ में निभाया है। इस फ़िल्म में धोनी के क्रिकेट करियर के सफ़र की शुरुआत को बेहद संजीदगी से दिखाया जाता है। हर एक छोटी छोटी चीज़ों पर ध्यान दिया गया है, जिसमें नीरज पांडे माहिर हैं।

लगान - बचपन में क्रिकेट से प्यार कराने वाली मूवी - दया सागर

अगर आप भारत में रहते हैं तो क्रिकेट से ज़रूर प्यार करते होंगे। 90 और शुरुआती 2000 के दशक में क्रिकेट को देखने का मज़ा ही कुछ और था। हालांकि दुर्भाग्यपूर्ण बात यह थी कि उस समय तक क्रिकेट पर बॉलीवुड में बनी कोई ख़ास फ़िल्म नहीं थी।

2001 में आशुतोष गोवारिकर निर्देशित और आमिर ख़ान अभिनीत लगान फ़िल्म से इसका सूखा ख़त्म हुआ। सूखे से याद आया कि यह आजादी से पूर्व या कहें कि 1857 के विद्रोह से पूर्व की कहानी है, जब भारत के अधिकांश हिस्सों पर महारानी विक्टोरिया का प्रत्यक्ष शासन हुआ करता था। इस फ़िल्म में एक सूखा पीड़ित गांव चंपानेर के किसान अपने ऊपर लगाए गए लगान को नहीं चुका पाते हैं और उनको लगान माफ़ी के लिए ब्रिटिश अफ़सरों के ख़िलाफ़ एक क्रिकेट मैच जीतने का प्रस्ताव मिलता है। उत्साहित ग्रामीण एक युवक भुवन के नेतृत्व में इस प्रस्ताव को तो स्वीकार लेते हैं लेकिन इसके बाद जो होता है, उसे देखना बहुत दिलचस्प है।

इस फ़िल्म की कहानी क्रिकेट के इर्द-गिर्द ही घूमती है, लेकिन इसमें उस समय के ग्राम्य जीवन, अंग्रेज़ों का भारतीयों के प्रति रवैय्या, भारतीय राजाओं का व्यवहार आदि भी कुशलता पूर्वक दिखाया गया है। अगर आप क्रिकेट के साथ-साथ इतिहास से प्यार करते हैं, तो आपको यह फ़िल्म ज़रूर पसंद आएगी।

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